Followers

Tuesday 15 October 2013

मीडिया : लोकतन्त्र का चौथा-स्तम्भ या लोक का

ये तथ्य ध्यातव्य है कि "मीडिया" लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ है, लोक का नहीं। अतः मीडिया को मात्र लोकतन्त्र की रक्षा में सन्नद्ध रहना चाहिए। लोकतन्त्र संविधान पर टिकी एक व्यवस्था है और "लोक" कालानुक्रम से गृहीत परम्पराओं का समृद्ध वृक्ष। परम्परानुप्राणित लोक एक लोकतन्त्र को तो जन्म दे सकता है किन्तु एक लोकतन्त्र किसी पारम्परिक लोक को जन्म नहीं दे सकता। लोकतन्त्र अपने लोक का संरक्षक मात्र होता है अथवा होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि लोकतन्त्र वस्तुतः अपने लोक की मूलभूत परम्पराओं का पोषक और संवर्धक मात्र होता है। इसका तात्पर्य यह नहीं मानना चाहिए कि समस्त परम्पराएं कालातीत और व्यावहारिक ही होती हैं। नहीं, परम्पराएं भी नवीनीकरण की अपेक्षा तो रखती ही हैं। किन्तु यह एकाधिकार केवल लोक का हो सकता है। यह बात स्वयंसिद्ध है कि जो परम्परा लोकतन्त्र की दृष्टि में प्रासंगिक नहीं रह जाएगी वह लोक के लिए भी सार्थक नहीं हो सकती, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि जो परम्परा लोकतन्त्र को बोझ लगने लगे वह निश्चय ही लोक के लिए प्रासंगिक नहीं है।
कथन में उलझाव प्रतीत हो रहा है? अस्तु। किन्तु इसे ऐसे देखें..जो आँखें मनुष्य के लिए संसार को देखने का कार्य करती हैं क्या वहीं आँखें उसी संसार को स्वयं के लिए देखने का कार्य नहीं कर सकतीं। प्रश्न उठता है कि क्या आँखों का दर्शन-कौशल मनुष्य से अलग है। उत्तर है-हाँ। यह दूसरा दर्शन-कौशल वस्तुतः आँखों की उच्चाकाँक्षा का होता है। कभी-कभी आँखें यह भूल जाती हैं कि उन्हें संसार को केवल मनुष्य के लिए देखने का अधिकार मिला है, न कि स्वयं की इच्छानुरूप वस्तु-प्रदर्शन का।
निहितार्थ यह कि कभी-कभी लोकतन्त्र स्वयं की उच्चाकाँक्षा के कारण भी लोक की कुछ परम्पराओं को अप्रासंगिक मानने लग सकता है। ठीक यही तर्क “मीडिया” के लिए भी लागू हो सकता है, वस्तुत: हम सभी पर। किन्तु अप्रासंगिकता की इस माँग के औचित्य की समीक्षा लाभार्थी के सन्दर्भ में की जानी चाहिए। लाभार्थी अर्थात् लोक।
उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि ऐसी दुर्व्यवस्था दिख रही है तो दोष मीडिया में नहीं अपितु संवैधानिक ढाँचे में है? अप्रासंगिक लोक नहीं अपितु “तथाकथित” लोक द्वारा निर्मित संविधान है। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत का लोकतन्त्र भारत के “लोक” को संसार का दर्शन कराने के बजाय स्वयं के दृष्टिलाभ के लिए लोक का “इस्तेमाल” करने लगा है? यदि सचमुच ऐसा है तो मीडिया तो स्वयं इसका अंग है। उसे स्वयं के मर्यादाहीन हो जाने का ज्ञान भी कैसे हो सकता है।

अन्त में, यह तथ्य विशेषरूप से ध्यातव्य है कि लोक में वर्षों पुरानी परम्पराओं को महत्त्व प्रदान करते रहने का कारण केवल और केवल मर्यादाओं का नियमन है जो किसी भी लोक के लोकतन्त्र का अलिखित संविधान होता है, और सदैव प्रासंगिक होता है। इस वाक्य की विशेष समीक्षा प्रबुद्ध जन स्वयं कर सकते हैं। ध्यान रहे मेरे कथन की समीक्षा केवल प्रबुद्ध जन ही करें, तथाकथित शिक्षित जन नहीं........ 

Saturday 19 January 2013

युवा-भारत की विधि-संहिता


वेद भारतीय सभ्यता के आदि ग्रन्थ हैं, ऐसा “कुछ” लोग कहते हैं। बचपन से यही सुनते रहे और मानते भी रहे। क्या करते? कोई विकल्प भी तो नहीं था। विकल्प तो अब भी नहीं है। किन्तु तब के विकल्पाभाव और आज के विकल्पाभाव में उतना ही अन्तर है जितना इतिहासकारों और भारतीय समाजशास्त्रियों की दृष्टि में युवा-भारत और तथाकथित असभ्य (uncivilized) प्राचीन भारत की जीवन-शैलियों और विधि-संहिताओं में। बचपन में विकल्पाभाव कोई प्रतिद्वन्द्वी न होने से सत्तावान् था, किन्तु आज का विकल्पाभाव दृढ़-संकल्प की सत्ता का परिचायक है।
सम्भव है भाषा में उलझाव सा प्रतीत हो रहा हो। ऐसा होना स्वाभाविक है। उलझावों का युग है, तो जब तक सब कुछ उलझा हुआ सा न लगे तब तक बुद्धि का आत्मसम्मान गौरव नहीं प्राप्त कर पाता। आत्मसम्मान भी अस्तित्व की अपेक्षा तो रखता ही है। भले ही आधार बुद्धि क्यों न हो?
उलझावों के युग में आत्मसम्मान का मान बढ़ जाता है। क्योंकि यही वो एक तत्त्व है जो सहजता से अभिज्ञप्त (identify)  हो जाता है, शेष सब कुछ तो उलझा हुआ ही रहता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि विचारों का उलझाव मानसिक उलझन का प्रतीक है। यह तो युवा-भारत की प्रतिष्ठा का मान-पत्र है। जो विचारों से जितना अधिक उलझ सकता हो, अथवा जिसके विचार जितना अधिक उलझा सकते हों वो युवा-भारत में उतना ही अधिक सम्मान-भाक् (respected) बन सकता है। तो मार्ग सहज है। विचारों से उलझने या उलझाने के प्रयत्न में जुट जाइए। साधन ? सहज है, किन्तु मैं नहीं बता सकता। भई मैं अपने आपको मूर्ख तो कहला सकता हूँ किन्तु असभ्य नहीं। नहीं समझे......? जाने दीजिए।
अब इसे मैं आश्चर्य कहूँ या अपनी मतिमन्दता?  किसी भी युग के समाज की विचारशीलता ही उस समाज की गतिशीलता का आधार बनती है। इसे ही हम दूसरे शब्दों में उस समाज की “विधि-संहिता” भी कहते हैं। प्राचीन भारत युवा-भारत की अपेक्षा निश्चय ही विचारहीन रहा होगा। उसकी तथाकथित असभ्यता इसी तथ्य को प्रमाणित करती है। यदि ऐसा न होता तो भला उसे अलिखित, मात्र वनवासी द्रष्टाओं द्वारा दृष्ट ग्रन्थों को अपनी विधि-संहिता बनाने में लज्जा का अनुभव भी न होता क्या?
युवा-भारत क्योंकि उसी असभ्य प्राचीन भारत से निकला है, अतः उसके वैचारिक उलझाव का प्रथम केन्द्र भी वही प्राचीन विधि-संहिता होनी थी। यह प्राचीन अतीत से मिला अभिशाप है जो युवा-भारत के पैरों से चिपक सा गया है। अब इस मैल को छुड़ाना तो उसका प्रथम और परम कर्तव्य बनता ही है न।
निश्चय ही  युवा-भारत को मनु की सन्तान कहलाना हीन लगेगा जबकि इससे अधिक उत्तम और सम्मानजनक अवधारणा स्वीकार की जा सकती हो। मनुष्य बन्दरों का अत्यधिक उन्नत, सभ्य और विकसित रूप है। ये ठीक भी है। इसमें आत्मसम्मान का बोध अधिक है। इस अवधारणा में किसी की कही हुई बातों को विधि-संहिता मान लेने का दासत्व-बोध भी नहीं है। तो फिर जो पैरों से चिमट कर “मनुष्य” का तादात्म्य “मनु” से स्थापित करने के लिए युवा-भारत के विचारों का चीरहरण सा करता प्रतीत होता रहता है वो क्या है? क्योंकि वानरवाची किसी भी शब्द से “ मनुष्य, मानव या आदमी” शब्दों की व्युत्पत्ति का कोई प्रमाण मिलता हो ऐसा संज्ञान में तो नहीं आया। व्युत्पत्ति का यही उलझाव युवा भारत की उन्नति के सारे मार्गों को रोककर रख रहा है। उन्नति और विकास युवा-भारत के सभ्य-प्रासाद के कपाटों को विदीर्ण कर प्रासाद में बलात् प्रविष्ट हुए जा रहे हैं, किन्तु, खेद का विषय तो यह है कि इस भारत के पास कोई विधि-संहिता नहीं है, जिससे वह उन्नति और विकास “पुरुष” का स्वागत कर सके।
किन्तु आश्चर्य है कि असभ्य भारत की विधि-संहिता को बिना देखे, बिना समझे, बिना जाने और बिना माने अपने जड़ों से छुड़ाने में प्रयत्नशील युवा-भारत के किसी समर्थ पुरुष में इतनी भी सामर्थ्य नहीं है कि द्वारों को विदीर्ण कर चुके विकास से यह कह सके कि अभी तनिक रुको, मैं अपनी सभ्यता और जीवन के लिए विधि-संहिता तो बना लूँ, कि अभी तो मेरी असभ्य जड़ों का अभिशाप-मोचन ही मेरी विधि-संहिता बना हुआ है।

Thursday 17 January 2013

ब्लॉक से ब्लॉग तक


मनुष्य होना भी विचित्र बात है। हो जाने पर जीते रहना भी विचित्र है। जीते हुए चुप रहना तो विचित्र है ही, बोलना उससे भी विचित्र है। क्योंकि हमारे समाज में मनुष्य होने की अनुभूति भी बोलते रहने से ही आती है। मौन तो मानो पशुओं का एकाधिकार (patent) हो गया है। हमें घिन आती है मौन रहने से। अरे नहीं, मैं सारे मानव समाज की अनुभूति की व्याख्या नहीं कर रहा हूँ। ये ब्लॉग मेरी अपनी डायरी है। सो ये अनुभूतियाँ भी केवल मेरा patent हैं। भई समय patent का है। यद्यपि यह पूर्णतः तर्कसंगत नहीं लगता, किन्तु कुछ भी बोलना सुने जाने की अपेक्षा करता है। तो इतना तो सब जानते हैं की सुनने का कॉपीराइट भी उसी के पास होता है जिसके पास मौन का। बोलने से मनुष्य होने का परमज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् कौन मूर्ख मौन रहकर स्वयं के लिए पशु उपाधि की कामना करेगा। ऐसा होना उस स्थिति में और भी कठिन हो जाता है जब हमें यह ज्ञान हो कि भारतवर्ष में मनुष्य होना हमें देवों के समकक्ष खड़ा करता है। वाणी को वशवर्तिनी मानना तो हमारी विरासत है। आदिकाल से हम इसी में तो निपुण होते आए हैं। एक यही वो क्रिया है जिसके लिए हमें कभी भी स्वयं को पात्रता का प्रमाण-पत्र नहीं देना पड़ा। मुझे नहीं पता कि महामुनि यास्क ने शब्दों का संग्रह कितने यत्नों और कितनी मर्यादाओं के साथ किया होगा, पर उनके यत्न को सार्थकता तो हमने ही दी है। इतना उपकार तो उन पर हमारा बनता ही है। अब ऐसे में किन शब्दों का प्रयोग हम कब, कहाँ, कैसे और किस सन्दर्भ में करें इसका ज्ञान हमें कम से कम यास्क से तो लेने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि शब्दों का अर्थ वो नहीं होता जो शब्द बनाने वाला निर्धारित करे, अर्थ तो प्रयोक्ता का एकाधिकार हैं। और यास्क के उन शब्दों के प्रयोक्ता हम हैं। कुछ लोग ये भी कह सकते हैं की शब्दों और मनुष्य के बीच यास्क कहाँ से आ गये? ठीक भी है। शब्द तो प्रजापति ब्रह्मा के उच्छ्वास हैं। तब तो और ही आनन्द की बात है। क्योंकि मनुष्य तो प्रजापति ब्रह्मा की घोषित सन्तान है और पिता की सम्पत्ति पर तो पुत्रों का अघोषित अधिकार होता ही है। अब इस तथ्य पर भी कोई आपत्ति करे तो यह अतिवाद ही कहा जाएगा। कथ्य ये कि हम शब्दों के प्रयोग में उन्मुक्त हैं।
उक्त मार्ग पर चलते-चलते आधा जीवन बीत गया। आशा उन्माद जैसी लगने लगी, जब ज्ञात हुआ कि जीवन के उत्तरार्ध तक उक्त मार्ग के पथिक भी अपने लिए एक श्रोता तक न पा सके जो उनकी बात को सुन सका हो। आश्चर्य की सीमा ही न रही कि जो समझते रहे सब मिथ्या निकला! यदि श्रोता ही नहीं तो कथ्य का तथ्य तो अतथ्य ही रहा। तो क्या बोलना एकालाप का पर्यायवाची है? कदाचित् यही होगा। अब तक विश्वस्त न हो सका, किन्तु आधे जीवन जिस मार्ग पर चला उसे बदल अवश्य दिया। मैं अपनी आशा को किसी और के भाग की साँसें नहीं दे सकता था। अच्छा भी है! सभी को अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही गति करनी चाहिए।
परन्तु  प्रश्न अब भी वहीं है। शब्द तो हैं, तो इनका प्रयोक्ता भी होगा। तब तो श्रोता भी अवश्य होगा। किन्तु कौन?  मैं तो समझ गया किन्तु...........